HOSHIARPUR (ADESH) बाहरी सुंदरता की अपेक्षा मन की सुंदरता की ज़्यादा महत्ता है। यदि तन सुंदर है और मन में कड़वाहट है, दूसरों के अवगुण देखने, नफऱत के भाव हैं तो वह बाहरी सुंदरता किसी काम की नहीं है लेकिन मनुष्य के जीवन में मानवीय गुण है लेकिन बाहरी सुंदरता नहीं है तो भी मनुष्य को कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है। उक्त विचार निरंकारी सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने कोहलापुर में आयोजित निरंकारी संत समागम दौरान प्रकट किये। सत्गुरू माता जी ने फरमाया कि मनुष्य के साँसों का कोई पता नहीं है इस लिए ब्रह्मज्ञान हासिल करके सेवा, सिमरन और सत्संग करते हुए, प्यार विनम्रता और दूसरे मानवीय गुण को हमेशा पहल देनी चाहिए।
उन्होंने सिमरन करने के समय की चर्चा करते हुए फरमाया कि सिमरन और प्रभु परमात्मा का अहसास बनाए रखने के लिए कोई विशेष समय निकालने की ज़रूरत नहीं होती, जैसे एक माँ को स्कूल गए अपने बच्चे का ध्यान करने के लिए कोई विशेष समय नहीं निकालना पड़ता , वह घर के काम काज करते हुए भी उसके बारे में सोच सकती है। इसी तरह ही मनुष्य चलते-फिरते अपने काम काम करते हुए सिमरन और प्रभु परमात्मा का अहसास बना कर रखा जा सकता है। परमात्मा को सदा ही अपने जीवन में बसा कर रखना चाहिए, फिर जैसा मजऱ्ी जि़ंदगी में समय आ जाये तो मन की स्थिति कभी भी डगमागती नहीं है। उन्होंने उदाहरण दे कर समझाने की कोशिश की कि जब बच्चा पढ़ाई अच्छी तरह करता है तो उसका जब भी मजऱ्ी टैस्ट ले लिया जाये तो वह घबराता नहीं है।
इसी तरह जब गुरसिक्ख हमेशा सेवा, सिमरन और सत्संग के साथ जुड़ा रहता है, प्रभु परमात्मा का अहसास मन में बना कर रखता है तो उसको कोई स्थिति हो उसकी स्थिति हमेशा एक जैसी रहती है। उन्होंने फरमाया कि मनुष्य ब्रह्मज्ञान ले कर जब प्रभु परमात्मा का सिमरन करता है, मानवीय गुण जिस में प्यार, नम्रता, शहनशीलता समेत दूसरे गुणों अपनाता है तो जीवन की ख़ूबसूरती बढ़ जाती है। उन्होंने मनुष्य को दूसरों के अवगुण देखने की बजाय गुणों को देखने की प्रेरणा देते हुए कहा कि जब हम किसी के अवगुण देखते हैं तो उसका हमें कोई लाभ नहीं होता बल्कि वह अवगुण हमारे में आने शुरू हो जाते हैं लेकिन जब हम किसी के गुण देखते हैं तो वह गुण हमारे में आने शुरू हो जाते हैं, जिसका हमें लाभ होता है, इसके साथ जहाँ हमारा जीवन में सुधार आता है वहां हम दूसरे के लिए भी प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। सत्गुरू माता जी ने आगे फरमाया कि संत हमेशा ही संतमत के साथ एक दूसरे के सहयोग की भावना के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। आज संसार में केवल और केवल प्यार की ज़रूरत है।
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